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१६ अक्रूर, १९५७
मेरे पास चार प्रश्न आये है । स्वभावत: ये उस बारेमें नहीं है जो मैंने अभी पढा है, बल्कि ये अलग-अलग तीन विषयोंपर हैं । और प्रत्येकके लिये बहुत लम्बे उत्तरोंकी आवश्यकता है । पर, फिर भी मैं पहंरेठ दो प्रश्नोंको लेती हू जो मेल खाते है । ये 'आत्मा' के अन्तर्लयनके बारेमें है । r' पहला प्रश्न है :
यदि वह सब जिसे कि अभिव्यक्त होना है जड़-तत्वमें पहलेसे ही अंतर्लीन है तो क्या उसमें अतिमानसके अतिरिक्त दूसरे
'श्रीअरविंद हमसे कहते हैं कि विकास अथवा विवर्तन अंतलयनका ही परिणाम है । इस रीतिसे, जीवन जडू-तत्वमें अंतर्लीन है, मन जीवनमें निवर्तित है, और अतिमानस मनमें निवर्तित है । शून्यमेंसे किसी चीजका प्रादुर्भाव नहीं हा' सकता । चूंकि सर्वोच्च सत्ता 'जडू-तत्व' में अंतर्भूत है इसीसे 'जडतत्त्व'मेंसे उसका प्रादुर्भाव हो सकना शक्य है ।
१९४ तत्व भी अंतर्निहित हैं जो कि जब अतिमानस पूरी तरह अभिव्यक्त हो चुकेगा उसके बाद अभिव्यक्त होंगे?
तर्कानुसार कहा जा सकता है ''हां'', क्योंकि तत्वतः जडतत्व और सर्वोच्च सत्तामें तादात्म्य है । परन्तु -- और यह बात दूसरे प्रश्नको ले आती है ।
क्या अंतर्लयन 'कालमें चरितार्थ हुआ और क्या उसका भी ऐसा ही इतिहास है जैसा कि क्रम-विकास है?
लगभग यह कहा जा सकता है कि इस प्रश्ननका उत्तर प्रश्नकर्ताकी मनोवस्थापर निर्भर है... । विद्वान तुमसे कहेंगे कि कई विभिन्न मत है जो इन विषयोंकी .चर्चा बहुत भिन्न-भिन्न रूपोंमें करते हैं । तत्वविचारक हैं जो कहानियोंको मानते ही नही, उनका मन मुख्य रूपसे विचारशील और दार्शनिक होता है और जैसा कि मैंने कहा, तत्वमीमांसा और अमूर्त चिन्तनमें लगा रहता है, उनकी दृष्टिमें कहानियां केवल बच्चोंके लिये ही अच्छी है । फिर मनोवैज्ञानिक है जो प्रत्येक चीजको चेतनाकी गतियोंमें अनूदित कर देते है और अन्तमें वे लोग है जो चित्रोंको पसन्द करते है, उनके लिये विश्वका इतिहास एक महान् विकास है, जिसे ''चलचित्र' के जैसा कहा जा सकता है और चित्रोंमें यह विकास उनके लिये बहुत अधिक सजीव और वास्तविक वस्तु होता है, क्योंकि चाहे वह केवल प्रतीकरूप ही हों, पर वह चीजोंको अधिक घनिष्ठ और वास्तविक रूपमें समझनेमें सहायता करता है ।
यह तो मानी हुई बात है कि तीनों व्याख्याएं समान रूपसे सच्ची हैं और मुख्य वस्तु है अपने विचारमें उनमें संगति और समन्वय स्थापित कर सकना । परंतु तत्त्व-शास्त्रकी रुक्षताको हम अलग छोड़. देते है इसलिये कि उन्हें विद्वान् त्वोगोंकी पुस्तकोंमें ही पढ़ना अधिक अच्छा है जो चीजोंको एकदम सुनियत, सुनिश्चित ओर रूखे ढंगसे कहते है! मनोवैज्ञानिक दृष्टि- कोण... इसके बारेमें बोलनेकी जगह इसे जीना ज्यादा अच्छा है । तब, हमारे लिये बाकी रह जाती है बच्चोंके उपयोगकी कहानी । हमेशा बच्चा बना रहना अच्छा है । और यदि हम इसकी आवश्यक सावधानी रखें कि हम उसे एक रूQ सिद्धांत न बना दें - जिसमें, यदि व्यक्ति धर्मद्रोही बनना न चाहे तो कुछ भी परिवर्तित नहीं किया जाना चाहिये -- तो हम इन कहानियोंको कम-से-कम एक ऐसे साधनके रूपमें ले सकते हैं जो हमारी बाल-सदृश चेतनाके सामने उस चीजको एक सजीव रूपमें उपस्थित कर देती है जो अन्यथा हमसे दूर ही रहती ।
१९५ जो बहुत-सी कहानियां कही गयी हैं जो कम या अधिक सच्ची, कम या अधिक पूर्ण, कम या अधिक सार्थक है, उनमेसे हम कोई भी चून सकते हे । परंतु यदि कोई व्यक्ति अपने अंदर या अपनेसे बाहर मूर्त्ति रूप देकर (जो इस दृष्टिसे तत्वतः एक ही बात है) उस कहानीको फिर- से, कम-से-कम अंशत: मोटे रूपमें जी सकें, तो यह चीज व्यक्ति- को चीजोंके क्यों और कैसेको जाननेमें और उनपर प्रभुत्व पानेमें सहायता करती है । कुछ लोगोंने इसे किया बोर वे एक साथ दीक्षित, गुह्यवेता या पैगम्बर माने जानें लगे -- और बहुत सुन्दर कहानियां कही गयी है ।
मैं' तुम्हें उनमेंसे एक कहानी बहुत संक्षेपमें सुनाती हू । इसे वेदवाक्य न मान लेना, बल्कि इसे... एक कहानीके रूपमें ही लेना ।
परम प्रभुने जब अपने-आपको मूर्त रूप देनेका निश्चय किया, ताकि वह अपने-आपको देख सकें, तो जिस चीजको उन्होंने सबसे पहले अपनेमें- से बाहर प्रकट किया वह था जगत्का 'ज्ञान' और उसे बनानेकी 'शक्ति' । इस 'शान-चेतना' और 'शक्ति' ने अपना काम शुरू किया । परम 'संकल्प' में एक योजना थी और उस योजनाका पहला सिद्धांत यह था कि मूलभूत 'आनंद' और 'स्वतंत्रता'की साथ-ही-साथ अभिव्यक्ति हों, जो इस सृष्टिकी सबसे रोचक विशेषता मालूम होती है ।
तो, इस 'आनंद' और 'स्वतंत्रता' को रूपोंमें अभिव्यक्त करनेके लिये मध्यवर्ती सत्ताओंकी आवश्यकता हुई । और शुरूमें चार सत्ताएं विश्व- विकासका प्रारंभ करनेके लिये बाहर प्रकट की गयीं, यह विश्व-विकास उस सबको क्रमश: बाहर प्रकट करनेके लिये था जो परम प्रभुने संभाव्यताके रूपमें मौजूद था । बे सत्ताएं, अपने मूल अस्तित्वमें थी. 'चेतना' और 'प्रकाश', जीवन', 'आनंद' और 'प्रेम' तथा 'सत्य' ।
तुम आसानीसे कल्पना कर सकते हों कि उनमें एक ऐसी भावना थीं कि उनके पास एक महान् शक्ति है, महान् बल है, कुछ ऐसी चीज है जो दुर्जेय है, क्योंकि म्उलत: वे इन चीजोंका सत्वरूप ही तो थे । और साथ ही उन्हें चुनाव करनेकी पूरी स्वतंत्रता थी क्योंकि यह सृष्टि स्वयं स्वतंत्रता- का साकार रूप बननेवाली थी... । जैसे ही उन्होंने काम करना शुरू किया (इसे कैसे किया जाय इस बारेमें उनकी अपनी-अपनी कल्पना थी), पूर्णत: स्वतंत्र होनेके कारण उन्होंनें इसे स्वच्छंद रूपमें करना पसंद किया । सेवक ओर यंत्रकी वृत्तिको अपनानेकी जगह, जिसके बारेमें श्रीअरविदने इसमे कहा है जो मैंने अभी पढा' उन्होंनें स्वभावत: स्वामी होनेकी वृत्ति
'''तलवार युद्ध-क्रीडामें आनंद पाती है, तीर अपनी सनसनाहट और
१९६ अपनायी, और यह भूल ही (मैं कह सकती हू) विश्वकी अव्यवस्थाका प्रथम कारण, उसका मूल कारण थी । जैसे ही अलगाव हुआ - क्योंकि मूलभूत कारण यही है, विभाजनका -- जैसे ही सर्वोच्च सत्ता और उससे प्रकट हुई वस्तुके बीच विभाजन हुआ वैसे ही 'चेतना' अचेतनामें, 'प्रकाश' अंधकारमें, 'प्रेम' घृणामें, 'आनंद', कष्टमें, 'जीवन' मृत्युमें और 'सत्य' मिथ्यात्वमें परिवर्तित हो गया । और वे स्वच्छंद रूपसे, विभाजन और अव्यवस्थामें अपनी सृष्टि बनाते चले गायें ।
उसीका परिणाम यह जगत् है जैसा कि हम उसे देरवते है । यह धीरे- धीरे क्रमिक रूपोंमें संपन्न हुआ; यह सब तुम्हें बढ़ाऊं सचमुच बात लंबी हो जायगी, परंतु अंततः, इसकी चरम परिणति है जड़-तत्व -- अंधकार- मय, अचेतन, दयनीय.... । सर्जक शक्ति, जिसने इन चार सत्ताओंको मूलत: संसारकी सृष्टिके लिये अपनेमेंसे बाहर प्रकट किया था वहां उपस्थित थी, उसने परम प्रभुकी ओर मुड़कर जो अशुभ उत्पन्न हों चुका था उसके उपचार और प्रतिकारके लिये प्रार्थना की ।
तब उसे (सर्जक शक्तिको) अपनी 'चेतना' को नीचे अचेतनामें, अपने 'प्रेम' को इस दुःख में और अपने 'सत्य' को' इस मिथ्यात्वमें उतारनेका आदेश मिला । और यह, पहली बार जिन्हें प्रकट किया गया था उनकी अपेक्षा अधिक बड़ी चेतना, अधिक संपूर्ण प्रेम और अधिक पूर्ण सत्य जडतत्वकी वीभत्सतामें मानों कूद पड़े ताकि उसमें चेतना, प्रेम और सत्यको जगा सकें और 'उद्धार' की उस क्रियाका आरंभ कर सकें जिसका प्रयोजन इस भौतिक विश्वको उसके परम स्रोतको ओर वापस ले जाना है ।
इस प्रकार, जडू-तत्वमें ये, जिन्हें ''क्रमिक अंतर्लयन'' कहा जा सकता है, स्पष्ट है और उन अंतर्लयनोंका इतिहास रहा है । और इन्हीं अन्तर्लयनोंका वर्तमान परिणाम है अचेतनामेंसे उभरते अतिमानसका प्रकट होना; पर ऐसा नही कहा जा. सकता कि इस प्राकटचके बाद फिर कोई दूसरा नहीं होगा... । क्योंकि परम प्रभु अक्षय हैं, और हमेशा नये जगत् बनाते रहेंगे ।
तो यह है मेरी कहानी ।
उडानमें उल्लास अनुभव करता है, पृथ्वी अंतरिक्षमें चकरा देनेवाली तेजी- से घूमनेमें ही हर्ष-विह्वल है, और सूर्य अपने जाज्वल्यमान तेज:पुंज एवं सनातन गतिके सम्राट-सम आनंदमें मस्त है । हे आत्म-सचेतन यंत्र, तू भी अपने निर्दिष्ट कर्मोका आनंद लें ।',
('कर्मोका आनंद', 'अतिमानव' पुस्तकसे उद्धत)
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